राजपूत खारोल(खारवाल)KHAROL(KHARWAL)


खारोल (KHAROL)जाति एक हिन्दू राजपूत समाज की एक जाति है ।
यह जाती विशेष रूप से राजपूतो में से है।

राजपूत होने के वावजूद इन्हें खारोल(kharol) क्यो कहा जाता है ?

खारोल(kharol) कोई जाति नही । खारोल(kharol) एक पहचान है जो नमक व खार से मिली है

राजपूत होने के कारण कुछ तो सत्ता चलते,कुछ सेनाओ को संभालते थे, कुछ  अपना व्यवसाय चलते थे ,कुछ अन्य काम करते थे । व्यवसाय के अन्दर खार व नमक का एक व्यवसाय  था । जो मारवाड़ की खारी जमीन से नमक बनाने का व्यवसाय किया करते थे ।  खार व नमक का व्यवसाय करने के कारण इन्हें खारवाल कहा जाने लगा और उनकी अलग ही पहचान बन गयी खारवाल । खारवाल से इन्हें समय के साथ साथ  खारोल कहने लगे गए । वर्तमान में इन्हें खारोल(kharol) (खारवाल) के नाम से
जाना जाता है ।

                       *वर्तमान में व्यवसाय *

        वर्तमान में इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है
   खारोल(kharol) अपना मुख्य व्यवसाय को छोड़ने का मुख्य कारण अग्रेजी हुकमत के कारण भारत मे अग्रेजो का शासन उनकी ही सरकार थी ।  तब अग्रेजो ने  नमक पर अधिक टैक्स लगा दिया और नमक बनाना या बेचना एक अपराध हो गया था   जिसके कारण खारोल अपना व्यवसाय को छोड़कर कृषि व्यवसाय को अपना लिया 

Comments

  1. दोस्तों ज्यादा तो मुझे पता नहीं पर इतना जरूर है कि खारवाल असल में तो कोई जाती नहीं हुआ करती थीं इस जाती को बने ही कोई 400-500 वर्ष हुऐ यह तो पक्का हमारे पुरखो से पता चला था।
    ज्यादा तर इनमें सिसोदिया नक और चौहान में हाडा माछलिया सोनगरा आदि नक होते थे और आज भी है कुछ राठौड़,पंवार, सोलंकी गौत्र और इनमें भी कई नख हुआ करता है और भी कई गौत्र होती है पर बहुतायत में उक्त गौत्र मौजूद है।
    हमारे पुरखे बताते थे कि मेवाड में कोई झाँझा और पीथा नाम के सूरवीर जिन्होंने मुस्लिमों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था किन्तु जब उस समय सिसोदिया गौत्र के राजा की विजय हुई तो झाँझा और पीथा नें ईनाम में बड़ी जागीरी की मांग कर डाली जिस पर राजा नें इनको मारने की कोई साजिस कर दी जिसकी भनक राजा को लग गई तो कुछ लोग मारे गये लेकिन पीथा और झाँझा सिसोदिया जोधपुर के गांव देसुरिया में खारवाल खारोल और जयपुर में दूदू में कुछ परिवार इस नाम पर बस गये।
    इनकी सबकी संख्या कोई 25 या 30 की रही होंगी और हाँ कुछ शायद राजपूत नहीं भी रहें होंगे तो शादी सम्बन्ध के लिऐ कुछ अन्य लोग मिला लिऐ गये होंगे यही नहीं झाँझा चौहान पचपदरा में आकर बस गया और अपनी जाती को छुपा कर खारवाल नाम से रहने लगा।
    खैर जो भी हो फिर ये लोग छुपकर जीवन जीने वाले गरीब तो थे ही और नमक ढोने के लिऐ गधे भी रखने लगे और जैसे तैसे पेट पालते रहें और अति कम होने के कारण यहाँ के राजपूतो से दूर बनते जीने लगे और यही कारण है बहुत कम संख्या के चलते बहुत दयनीय हालत में पहुँच गये यूँ गौत्र के अनुसार हमारी इनकी देवी तो अलग अलग है किन्तु सारे इन राजपूतों यानि अब खरवालों की देवी सांभरा या शाखम्भरी है ये शराब की बहुत आदी लोगों का एक खारवाल नाम से समूह मात्र और आज भी इनको हमेशा राजपूत ही भाते है यूँ तो इनकी नशा वृती प्रवृति के कारण हालात बद से बदतर है कुरीतियों की भरमार है अभी भी अपनी जाती जो अब है उनमें भी भेदभाव है कि वो बाहर का है ये हमारे है और यहाँ के है अब एक बहुत कम जाती तो है हि उसमें भी और कम होती जा रही है अंग्रेजों के समय तो इन्हे कोई खास तकलीफ नहीं रही थीं अंग्रेज नमक का सही वाजिब दाम दे देते थे क्योंकि उस समय भरस्टाचार की जगह नहीं थीं खेती की जमीन ज्यादा नहीं रहती थीं उस समय पैसों की कोई कमी नहीं रही थीं किन्तु एक दो बार बाढ़ के कारण इस विशेष जाती की सम्पन्नता पूरी तरह से नस्ट हो गई भारत सरकार नें कोई सुध नहीं ली थीं।
    बोलचाल में इन्हे जागीरदार ही कहा करते थे आस पास ही नहीं दूर दराज के लोग मजदूरी के लिऐ आते थे उन्हें यही खारवाल अच्छे पैसे मजदूरी का देते रहते थे बड़ी बड़ी खाने गधों से खोदी जाती थीं नमक निकाला जाता था।
    आजकल तो लोग इस जाती को जानते ही नहीं क्योंकि ये तो नई जाती ही बनी थीं कुछ लोग बहुत थोड़ी मात्रा में कहीं बस गये थे उन्होंने भी अपनी मूल जाती राजपूत को छोड़ नई जाती से बस गये और कम होने के कारण शोषण का शिकार बन कर डरकर रहते है।

    ऐसा नहीं है की ये कमजोर लोग है बस संख्या बहुत बहुत नगण्य है सच कहूं तो आज एक व्यक्ति इस खारवाल राजपूत हों और सामने कोई और 2,3 व्यक्ति हों तो खारवाल अवश्य भारी पड़ सकता है अब इसका ज्यादा इतिहास तो नहीं मिलता क्योंकि यह नया नवेला ग्रुप मात्र है और जाती राजपूत ही है पर इन्होंने राजपूती मर्यादा छोड़ दी और कारण तो पहले बताया गया है अब मुझे जितना मेरे पुरखों से मिला उसे बहुत थोड़ा शेयर किया है साथ ही अब यह जाती खारवाल, खारीवाल खारोल इन नामों से कहीं कहीं मिलती है हाँ पचपदरा बाड़मेर राजस्थान में बहुत थोड़ी सी ही है और दूसरी किसी जगह पर भी है किन्तु इससे भी अत्य अल्प संख्या में है।
    बाकी कोई कुछ भी कहे इनकी रगों में खून राजपूती अब भी दौड़ता है और लड़ने में संख्या/संख्या हों तो शायद ही पीठ दिखा कर भागे हाँ कहीं ताकत कम भी हो सकती पर जोश और अपने पे भरोसा पूरा रखते है ये लोग।
    हाँ एक बार और बताता चलूँ की ये सारी बातें 100%सत्य है किन्तु पूरी जानकारी मुझे नहीं है कल कोई कहदे की आपने यह वो क्यों नहीं बताया वो जानने के लिऐ पचपदरा के मठ मे मिल सकती है और इसमें कई ओछे ढंग से नाम हमने या उनने किसी डर के मारे लिखवाये थे कि किसी को पता न चल जाय और कहीं संकट खड़ा हों जाय। नगराज चौहान 70ये देसुरिया पचपदरा जोधपुर बाड़मेर राजस्थान वाला।

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